भोजन करने और पचाने की प्रक्रिया में चबाने का बहुत अधिक महत्व माना जाता है। डॉक्टर्स या एक्सपर्ट्स को अक्सर कहते सुना जाता है कि भोजन चबा चबाकर करना चाहिए। लेकिन क्या आप जानते हैं कि चबाने की इस प्रक्रिया से मनुष्य के विकास का संबंध भी जुड़ा हुआ है? एक नई स्टडी में बहुत रोचक जानकारी दी गई है। इसमें कहा गया है कि लाखों साल पहले चबाने की प्रक्रिया ही मनुष्य के विकास का कारण बनी।
Science Advances नाम के एक जर्नल में इस स्टडी को
प्रकाशित किया गया है। स्टडी को लेडन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने तैयार किया है, जिसे सबसे पहले न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित किया गया था।
स्टडी में लिखा गया है कि मनुष्यों में मास्सेटर पेशी या मसल होती है। इसके रेस्पिरोमेट्री और इलेक्ट्रोमोग्राफी का उपयोग करते हुए वैज्ञानिकों ने पाया कि ह्यूमन सब्जेक्ट द्वारा चबाने की क्रिया मापने योग्य एनर्जी सिंक को दर्शाती है। यह मेटाबॉलिक रेट को बेस लेवल से 10-15 प्रतिशत बढ़ा देता है।
स्टडी में 18 से 45 साल के पुरूष और महिलाओं ने भाग लिया था। सब्जेक्ट ने इसमें नरम और कठोर चूइंग गम को चबाया और वैज्ञानिकों ने इसके नतीजे लिए। इसमें भाग ले रहे व्यक्ति की ऑक्सीजन खपत, कार्बन डाइऑक्साइड प्रोडक्शन और मैसेटर पेशी की एक्टिविटी को मापा गया।
पैलियोएंथ्रोपोलॉजिस्ट अमांडा हेनरी ने बताया कि सॉफ्ट गम को चबाते समय सब्जेक्ट्स का एनर्जी एक्सपेंडीचर यानि कि ऊर्जा की खपत 10.2% बढ़ गई। यही खपत कठोर गम में 15.1% रिकॉर्ड की गई। उन्होंने कहा कि भोजन चबाना बहुत ऊर्जा खपत करता है, यह जितना कठोर होता है, उतनी ही ज्यादा ऊर्जा की खपत करता है।
आजकल का भोजन कई प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है और चबाने में बहुत सॉफ्ट होता है। लेकिन हमारे पूर्वजों ने बीजों, कड़े छिलके वाले फलों और पत्तों को चबाया। परिणाम यह हुआ कि उन्होंने आधुनिक मानव की तुलना में भोजन करने में अत्यधिक ऊर्जा खर्च की। अमांडा ने कहा कि हम मानकर चलते हैं कि नैचरल सिलेक्शन ने जबड़ों का निर्माण किया, फेशिअल मसल बनाईं और दांत भी इसी से बने ताकि भोजन को चबाने में कम से कम ऊर्जा की खपत हो।
इसलिए हम सोचते हैं कि जैसे कि आज हम भोजन को चबा रहे हैं, यह लाखों वर्षों के विकास के कारण हो पाया है। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि इस स्टडी से मनुष्य के आकार लेने की प्रक्रिया को समझने में भी मदद मिलेगी।