प्रारंभिक जीवन में दिमाग पर कोई बड़ा आघात लग जाए तो यह जीवनभर के लिए मनुष्य के व्यवहार पर असर डाल सकता है। इतिहास में झांक कर देखें तो 1966 में रोमानियाई तानाशाह निकोलाए चाउसेस्कु ने देश की जन्म दर बढ़ाने के लिए बेहद कड़ी नीतियां लागू कीं। इसके कारण बच्चों को बड़े पैमाने पर छोड़ दिया गया। ये बच्चे भयावह परिस्थितियों में अनाथालयों में चले गए जहाँ उन्हें किसी तरह की देखभाल, या प्यार नहीं मिला। यह घटना बेहद दुखद थी लेकिन इसने हमें प्रारंभिक जीवन में लगे आघातों के प्रभावों के बारे में बहुत कुछ सीखने का मौका दिया।
इन बच्चों पर किए गए
शोध में पाया गया कि इनमें से कई बच्चों के
दिमाग का आकार छोटा था। यानी आंशिक रूप से यह उनके खराब संज्ञानात्मक प्रदर्शन (cognitive performance) को बताता है। यह क्षीणता उन बच्चों में अधिक गंभीर थी, जिन्होंने अनाथालयों जैसे संस्थानों में लम्बा समय बिताया था।
बचपन का समय किसी भी व्यक्ति के तंत्रिका विकास के लिए सबसे संवेदनशील समय होता है। लेकिन दुख की बात है कि इसे कई तरह से बाधित भी किया जा सकता है। मसलन, दुर्व्यवहार करके, अपशब्द कहकर, बच्चे को नजरअंदाज करके, या फिर उसे युद्ध और हिंसा जैसी परिस्थितियों में धकेलकर।
बचपन में घटित इस तरह की प्रतिकूलताओं के न्यूरोबायोलॉजिकल प्रभावों को समझकर हम इसके दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक प्रभावों के बारे में जान सकते हैं और उनका इलाज करने में सक्षम हो सकते हैं। साक्ष्य बताते हैं कि ये विशेष रूप से मेन स्ट्रेस रेगुलेशन सिस्टम को प्रभावित करते हैं, जिसे हाइपोथैलेमिक-पिट्यूटरी-एड्रिनल एक्सिस के रूप में जाना जाता है। इस सिस्टम की एक्टिविटी को कॉर्टिसोल (cortisol) जैसे हार्मोन के माध्यम से मापा जा सकता है, जिसे सामूहिक रूप से ग्लूकोकोर्टिकोइड्स के रूप में जाना जाता है।
कॉर्टिसोल जब साधारण मात्रा में रिलीज होता है तो शरीर को किसी खतरे से लड़ने में मदद करता है। लेकिन जब यह बहुत अधिक मात्रा में रिलीज होता है तो नुकसानदेह होता है। युद्ध, लड़ाई, हिंसा जैसी परिस्थितियों में बच्चों के अंदर अत्यधिक मात्रा में रिलीज होता है। यहां पर जरूरी हो जाता है कि व्यक्ति हार न माने। रिसर्च कहती है कि मस्तिष्क अत्यधिक लचीला होता है, और कई व्यक्ति इस तरह के शुरुआती ट्रॉमा पर काबू पा सकते हैं। मनोविज्ञान में, इस प्रक्रिया को लचीलापन (resilience) कहा जाता है।