यह सच्चाई है कि पृथ्वी पहले की तुलना में ज्यादा गर्म है। औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से तुलना करें, तो हमारा ग्रह लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस गर्म है। वह वॉर्मिंग एक समान नहीं है। कुछ क्षेत्रों में तापमान ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। ऐसा ही एक इलाका आर्कटिक है। एक नए अध्ययन से पता चलता है कि पिछले 43 साल में दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में आर्कटिक लगभग चार गुना तेजी से गर्म हुआ है। इसका मतलब है कि 1980 की तुलना में आर्कटिक औसतन लगभग 3 डिग्री सेल्सियस गर्म है। आंकड़े चिंताजनक है, क्योंकि आर्कटिक में संवेदनशील जलवायु है, जिसे ज्यादा नुकसान पहुंचा, तो उसका खमियाजा पूरी दुनिया को भुगतना होगा।
आखिर
आर्कटिक में तापमान इतनी तेजी से क्यों बढ़ा है? इसका जवाब यहां की उस समुद्री बर्फ में छुपा है, जो आमतौर पर एक मीटर से पांच मीटर तक मोटी होती है। यह सर्दियों में जम जाती है और गर्मियों में आंशिक रूप से पिघल जाती है। बर्फ की चमकदार परत अंतरिक्ष से आने वाले सोलर रेडिएशन का लगभग 85 फीसदी हिस्सा रिफ्लेक्ट करती है। इसके उलट गहरा समुद्र लगभग 90 फीसदी सोलर रेडिएशन को ऑब्जर्व कर लेता है।
जब आर्कटिक का समुद्री बर्फ से ढका होता है, तो यह इसके लिए कंबल की तरह काम करता है और सोलर रेडिएशन का अवशोषण कम हो जाता है। लेकिन बर्फ के पिघलने पर सोलर रेडिएशन का अवशोषण बढ़ जाता है। इससे समुद्री बर्फ का पिघलना तेज होता है और वहां के तापमान में भी बढ़ोतरी होती है।
सवाल है कि हमें कितना चिंतित होना चाहिए, क्योंकि आर्कटिक में बर्फ और पानी के अलावा भी कई चीजें हैं, जिन्हें नुकसान होने पर उसका असर पूरी दुनिया में होगा। इसी कॉम्पोनेंट में से एक है पर्माफ्रॉस्ट। यह पृथ्वी की सतह की स्थायी रूप से जमी हुई परत है। आर्कटिक में तापमान बढ़ने से यह परत भी पिघलती है और गहरी हो जाती है। परत के पिघलने से बायलॉजिकल एक्टिविटी बढ़ती है और वातावरण में कार्बन रिलीज होती है, जो एक चिंता की बात है।
इसी तरह आर्कटिक का तापमान बढ़ने से ग्रीनलैंड की आइसशीट भी प्रभावित होगी। अगर यह पूरी तरह से पिघल गई तो दुनिया के समुद्र का लेवल 7.4 मीटर तक बढ़ जाएगा और हमारे कई शहर इतिहास बन सकते हैं।