क्या आपने कभी सोचा है, चांद या मंगल की जमीन पर खड़े होकर कैसा लगता होगा? 65 साल पहले जब Sputnik 1 को लॉन्च किया गया तो, उसके बाद स्पेस को एक्सप्लोर करने की रुचि तेजी से बढ़ी और इसने कई खोजों को जन्म दिया।
लेकिन हम केवल ये जानने की कोशिश कर रहे हैं कि सौर मंडल के दूसरे ग्रहों की जमीन कैसी है, अगर वहां जाया जा सके तो कैसा महसूस हो सकता है।
Nature Astronomy में हमारी एक नई स्टडी प्रकाशित हुई है। यह बताती है कि दूसरे ग्रहों की जमीन पर मौजूद रेत के टीलों से पता लगाया जा सकता है कि अगर कोई व्यक्ति दूसरे ग्रह की सतह पर खड़ा हो तो कैसा महूसस कर सकता है, या वहां मौसम के कैसे हालात हो सकते हैं।
रेत का कण क्या होता है? अंग्रेजी के कवि विलियम ब्लेक ने हैरानी जताई कि दुनिया का रेत के कण में समा जाना क्या बताता है। अपनी रिसर्च में हमने इसी सिद्धांत को गहराई से लिया है। मकसद था ये समझना कि रेत के टीले होने पर किसी दूसरे ग्रह की जमीन पर कैसी परिस्थिति पैदा हो सकती है।
दूसरे ग्रहों पर रेत के टीले होने के लिए कुछ चीजों का होना बहुत जरूरी है। सबसे पहले तो वहां कणों की मौजूदगी जरूरी है जो समय के साथ टूट भी सकें लेकिन कुछ समय तक टिकाऊ भी हों। वहां पर हवाओं की गति कम से कम इतनी तेज तो होनी चाहिए कि रेत के कण जमीन से ऊपर उठकर हवा में तैर सकें, लेकिन इतनी तेज नहीं कि वो उन्हें उड़ाकर वातावरण में ऊंचे ले जाए।
अब तक हवाओं और रेत के कणों का सीधा माप केवल धरती और मंगल पर ही संभव हो सका है। हमने ये देखा है कि हवा के साथ उड़े कण सैटेलाइट के माध्यम से दूसरे पिंडों पर भी पहुंच जाते हैं (यहां तक कि कॉमेट्स पर भी)। इन पिंडों पर रेत के टीलों का होना यह जाहिर करता है कि गोल्डीलॉक (Goldilocks) परिस्थिति बन रही है।
हमने अपना काम शुक्र, पृथ्वी, मंगल, टाइटन, ट्रिटॉन (नेप्च्यून का सबसे बड़ा चांद) और प्लूटो को ध्यान में रखकर किया। इन खगोलीय पिंडों के बारे में दशकों से वाद-विवाद चल रहा है जो किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा है।
हमें मंगल की सतह पर ऐसे रेत के टीले कैसे मिल जाते हैं, जबकि हम ये जानते हैं कि वहां पर हवा इतनी शक्तिशाली है नहीं कि रेत के कणों को अपने साथ उड़ा सके। क्या शुक्र का घना और कठोर वातावरण रेत के कणों को वैसे ही हिलाता है जैसे धरती पर पानी और हवा चलते हैं? हमारी स्टडी ने यह अनुमान लगाया है कि ऐसी जगहों पर रेत के कणों को अपने साथ चलाने के लिए कैसी हवाओं की जरूरत होगी, और कैसे ये कण इन हवाओं में टूटते होंगे।
हमने ये अनुमान दूसरे रिसर्च पेपरों के नतीजों को साथ जोड़कर लगाया है, और सारे एक्सपेरिमेंटल डाटा के साथ इनको टेस्ट किया है। उसके बाद हमने इस थ्योरी को सभी 6 ग्रहों पर आजमाया, हमने टेलीस्कोप पर इनके चित्र तैयार किए और वहां की ग्रेविटी वातावरण की संरचना, सतह के तापमान और कणों की शक्ति जैसे कारकों को इसमें शामिल किया।
हमसे पहले जो स्टडी आई हैं, उनमें ये देखा गया कि या तो वायु की एक न्यूनतम गति मौजूद हो या इन कणों की शक्ति हो, जो इन्हें एक जगह से दूसरी पर ले जा सके। लेकिन हमने इन दोनों कारकों को एक साथ जोड़ दिया, ये देखने के लिए कि कितनी आसानी से कण इन ग्रहों के वातावरण में टूट जाते हैं।
मंगल के लिए हमारे जो नतीजे आए हैं, उनके मुताबिक, मंगल पर पृथ्वी से भी अधिक ऐसे मिट्टी वाले तूफान चलते हैं जो इस तरह के टीलों का निर्माण करते हैं। इसका मतलब है कि हमारा मंगल के वातावरण वाला मॉडल प्रभावी ढंग से मंगल की शक्तिशाली कैटाबेटिक हवाओं को नहीं पकड़ पा रहा है, जो कि ठंडे झोके हैं जो रात के समय चलते हैं।
हमने पाया कि प्लूटो पर भी हवाएं बहुत अधिक तेज होंगी जो मिथेन या नाइट्रोजन की बर्फ को अपने साथ उड़ा सकें। इससे ये सवाल पैदा होता है कि प्लूटो की सतह पर रेत के टीले, जिन्हें स्पूतनिक प्लेंशिया कहा जाता है, क्या वाकई में ही टीले हैं!
इसकी बजाए वे सब्लिमेशन वाली तरेंगें होंगी। वे टीले जैसे दिखने वाले जमीन के हिस्से होंगे जो पदार्थ के तरल में बदलने से बने हुए दिखते हैं, न कि ठोस कणों के हवा में उड़ने से।