मनुष्य का जो रूप आज हम देख रहे हैं यह हजारों वर्षों के विकास का नतीजा है। मानव धरती पर मौजूद इकलौता प्राणी है जो गले में शब्दों को पैदा कर पाता और बोलने की क्षमता रखता है। एक नई स्टडी में सामने आया है कि कैसे मनुष्य के भीतर बोलने की क्षमता का विकास हुआ। वैज्ञानिकों ने पाया है कि कैसे समय के साथ मनुष्य में बदलाव होते गए जो हमें हमारे पूर्वजों से अलग करते गए। ये नई स्टडी कहती है कि 43 प्रजातियों के अध्य्य़न के बाद पता चला है कि दूसरी प्रजातियों में वोकल मैमब्रेन नामक हिस्से की गले में कमी होती है। यह मेमब्रेन या झिल्ली वोकल कॉर्ड्स का विस्तारित हिस्सा होता है जो रिब्बन जैसा दिखता है।
स्टडी में ये भी सामने आया है कि मनुष्य बंदरों की तरह आवाज नहीं निकाल सकता है, क्योंकि मनुष्य के गले में एक गुब्बारेनुमा स्ट्रक्चर की कमी होती है जिन्हें एयर सैक्स कहा जाता है। एयरसैक्स की कमी ही है, जिससे कि मनुष्य एक स्थिर आवाज निकाल पाता है और वह शब्दों का निर्माण कर सकता है।
Kyoto यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर द इवोल्यूशनरी ओरिजिन्स ऑफ ह्यूमन बिहेवियर इन जापान के प्राइमेटोलॉजिस्ट ताकेशी निशिमुरा ने कहा कि नॉन् ह्यूमन प्राइमेट्स में अधिक जटिल वोकल स्ट्रक्चर के कारण ही वो वाइब्रेशन को सटीकता के साथ कंट्रोल नहीं कर पाते हैं।
ऑस्ट्रिया में वियना यूनिवर्सिटी में स्टडी के को-ऑथर और इवोल्यूशनरी बायोलॉजिस्ट डब्ल्यू टेकुमसेह फिच ने कहा कि वोकल मेम्ब्रेन के कारण ही दूसरे प्राइमेट ऊंची और हाई पिच वाली आवाजें पैदा कर पाते हैं। लेकिन उनकी आवाज में ब्रेक्स ज्यादा होते हैं और अनियमितता भी बहुत ज्यादा होती है।
स्टडी को
Science जर्नल में
प्रकाशित किया गया है। इस स्टडी में बंदरों की एनाटॉमी की जांच की गई है जिनमें चिम्पांजी, गोरिल्ला, ओरंगुटान और गिब्बन जैसी प्रजातियों का अध्य्यन किया गया है। इसके साथ ही पुरानी दुनिया के बंदर जैसे मेकेक्यू, ग्यूनन, बबून और मैंड्रिल्स को भी स्टडी किया गया है। स्टडी में नई दुनिया के बंदर जैसे केपुचिन्स, टेमेरिंस, मर्मोसेट्स और टाईटिस भी शामिल रहे।